किस चिंता में मैं दौड़ चला
उस बेरंग दिशा की और
देखा तो शर्मिंदा हुआ
सोच में पड़ा
क्यों पकड़ी ऐसी पतंग की डोर
सोच में मेरी क्यों खोट हुई
क्यों मन आँगन आया मेर चोर
भटकन को मजबूर हुआ
ठोकर खायी सो मजबूत हुआ
भले-बुरे का बोध हुआ
और हमने फिर सोच लिया
धीरे धीरे ही सही
पहुंचेगे कही न कहीं
जहा होगी हमारी भी पहचान
कहलायेगे इक दिन
हम भी एक इन्सान